Hanuman Chalisa Meaning in Hindi | Hanuman Chalisa Full Lyrics in Hindi

दोहा

भावार्थ– श्रीगुरूदेवके चरण- कमलोंकी धूलिसे अपने मनरूपी दर्पणको निर्मल करके मैं श्रीरघुवरके उस सुन्दर यशका वर्णन करता हूं जो चारों फल (धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष)- को प्रदान करनेवाला है।

व्याख्या– मनरूपी दर्पणमें शबद-स्पर्श-रूप-रस-गन्धरूपी विषयोंकी पांच पर्तोंवाली जो काई (मैल)चढ़ी हुई है वह साधारण रजसे साफ होनेवाली नहीं है। अतः इसे स्वच्छ करनेके लिए ‘श्री गुरु चरन सरोज रज’- की आवश्यकता पड़ती है। साक्षात् भगवान शंकर ही यहां गुरुस्वरूपमें वर्णित है। भगवान शंकर की कृपासे ही रघुवर के सुयशका वर्णन करना सम्भव है।

दोहा

भावार्थ– हे पवनकुमार! मैं अपने को शरीर और बुद्धि से हीन जानकर आपका स्मरण (ध्यान) कर रहा हूं। आप मुझे बल,बुद्धि और विद्या प्रदान करके मेरे समस्त कष्टों और दोषोंको दूर करने की कृपा कीजिये।

व्याख्या– मैं अपने को देही न मानकर देह मान बैठा हूं, इस कारण बुद्धिहीन हूं और पांचों प्रकारके क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश) तथा षड्विकारों (काम,क्रोध,लोभ, मोह, मद, मत्सर) से संतप्त हूं; अतः आप जैसे सामर्थ्यवान् ‘अतुलितबलधामम्’ ‘ज्ञानिनामग्रगण्यम्’ से बल बुद्धि एवं विद्याकी याचना करता हूं तथा समस्त क्लेशों एवं विकारोंसे मुक्ति पाना चाहता हूं।

चौपाई

भावार्थ– ज्ञान और गुणोंके सागर श्रीहनुमान् जीकी जय हो। तीनों लोकों (स्वर्गलोक, भूलोक, पाताललोक) को अपनी कीर्तिसे प्रकाशित करने वाले कपीश्वर श्रीहनुमानजी की जय हो।

व्याख्या– श्रीहनुमानजी कपिरूपमें साक्षात् शिवके अवतार है, इसलिए यहां इन्हें कपीश कहा गया। यहां हनुमानजी के स्वरूपकी तुलना सागरसे की गयी। सागरकी दो विशेषताएं हैं- एक तो सागर से भण्डारका तात्पर्य है और दूसरा सभी वस्तुओंकी उसमें परिसमाप्ति होती है। श्रीहनुमन्तलालजी भी ज्ञानके भण्डार है और इनमें समस्त गुण समाहित हैं। किसी विशिष्ट व्यक्तिका ही जय-जयकार किया जाता है। श्रीहनुमानजी ज्ञानियों में अग्रगण्य,सकल गुणों के निधान तथा तीनों लोकों को प्रकाशित करनेवाले हैं, अतः यहां उनका जय-जयकार किया गया है।

भावार्थ– हे अतुलित बलके भण्डारघर रामदूत हनुमानजी! आप लोक में अंजनि-पुत्र और पवनसुतके नामसे विख्यात है।

व्याख्या– सामान्यतः जब किसी से कोई कार्य सिद्ध करना हो तो उसके सुपरिचित, इष्ट अथवा पूज्यका नाम लेकर उससे मिलने पर कार्य की सिद्धि होने में देर नहीं लगती। अतः यहां श्रीहनुमानजी को प्रसन्न करने के लिए भगवान् श्रीराम, माता अंजनी तथा पिता पवनदेव का नाम लिया गया।

भावार्थ– हे महावीर! आप वज्रके समान अंगवाले और अनन्त पराक्रमी हैं। आप कुमति (दुर्बुद्धि) का निवारण करनेवाले हैं तथा सद्बुद्धि धारण करनेवालोंके संगी (साथी,सहायक) है।

व्याख्या– किसीको अपनी ओर आकर्षित करने के लिये सर्वप्रथम उसके गुणों का वर्णन करना चाहिये। अतः यहां श्रीहनुमानजी के गुणों का वर्णन है। श्रीहनुमन्तलालजी त्याग,दया, विद्या,दान तथा युद्ध- इन पांच प्रकारके वीरतापूर्ण कार्यों में विशिष्ट स्थान रखते हैं, इस कारण ये महावीर है। अत्यन्त पराक्रमी और अजेय होने के कारण आप विक्रम और बजरंगी है। प्राणिमात्रके परम हितैषी होने के कारण उन्हें विपत्ति से बचानेके लिये उनकी कुमतिको दूर करते हैं तथा जो सुमति है, उनके आप सहायक है।

भावार्थ– आपके स्वर्णके समान कान्तिमान् अंगपर सुन्दर वेश-भूषा, कानों में कुण्डल और घुंघराले केश सुशोभित हो रहे हैं।

व्याख्या-इस चौपाई में श्रीहनुमन्तलालजी के सुन्दर स्वरूपका वर्णन हुआ है। आपकी देह स्वर्ण-शैलकी आभाके सदृश है और कान में कुण्डल सुशोभित है। उपयुक्त दोनों वस्तुओंसे तथा घुंघराले बालों से आप अत्यंत सुंदर लगते हैं।

भावार्थ-आपके हाथ में वज्र (वज्र के समान कठोर गदा) और धर्मका प्रतीक) ध्वजा विराजमान हैं तथा कंधेपर मूंजका जनेऊ सुशोभित है।

व्याख्या– सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार वज्र एवं ध्वजाका चिह्न सर्वसमर्थ महानुभाव एवं सर्वत्र विजयश्री प्राप्त करनेवाले के हाथ में होता है और कन्धे पर मूंजका जनेऊ नैष्ठिक ब्रह्मचारीका लक्षण है। श्रीहनुमानजी इन सभी लक्षणों से सम्पन्न हैं।

भावार्थ– आप भगवान शंकरके अंश (अवतार) और केशरीपुत्र के नामसे विख्यात हैं। आप (अतिशय) तेजस्वी, महान् प्रतापी और समस्त जगत्के वन्दनीय है।

व्याख्या-प्राणिमात्रके लिये तेजकी उपासना सर्वोत्कृष्ट है। तेजसे ही जीवन है। अन्तकाल में देहाकाशसे तेज ही निकलकर महाकाशमें विलीन हो जाता है।

भावार्थ– आप सारी विद्याओंसे सम्पन्न,गउणवआन् और अत्यंत चतुर हैं। आप भगवान् श्रीराम‌‌‌ का कार्य (संसारके कल्याणका कार्य) पूर्ण करने के लिये तत्पर (उत्सुक)रहते हैं।

व्याख्या-श्रीहनुमन्तलालजी समग्र विद्याओं निष्णात है और समस्त गुणों को धारण करनेसे ‘सकलगुणनिधान’ है। वे श्रीरामके कार्य-सम्पादन-हेतु अत्यंत आतुरता (तत्परता, व्याकुलता) का भाव रखनेवाले हैं। क्योंकि ‘राम काज लगि तव अवतारणा’ यही उद्घोषित करता है कि श्रीहनुमानजी के जन्मका मूल हेतु मात्र भगवान् श्रीराम के हित-कार्योंका सम्पादन ही है।

ब्रह्म की दो शक्तियां हैं-पहली स्थित्यात्मक और दूसरी गत्यात्मक। श्रीहनुमन्तलालजी गत्यात्मक क्रिया शक्ति है अर्थात निरन्तर रामकाजमें संनद्ध रहते हैं।

भावार्थ-आप प्रभु श्री राघवेन्द्रका चरित्र (उनकी पवित्र मंगलमयी कथा) सुननेके लिये सदा लालायित और उत्सुक (कथारसके आनन्द में निमग्न) रहते हैं। श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीताजी सदा आपके हृदयमें विराजमान रहते हैं।

व्याख्या– ‘राम लखन सीता मन बसिया’ – इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि भगवान् श्रीराम, श्रीलक्ष्मणजी एवं भगवती सीता जी के हृदय में आप बस्ते है।

भावार्थ– आपने अत्यंत लघु रूप धारण करके माता सीताजी को दिखाया और अत्यंत विकराल रूप धारण कर लंका नगरी को जलाया।

व्याख्या– श्रीहनुमानजी अष्टसिद्धियों से सम्पन्न हैं। उनमें सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अति विस्तीर्ण दोनों रूपों को धारण करने की विशेष क्षमता विघमान है। वे शिव (ब्रह्म) का अंश होने के कारण तथा अत्यंत सूक्ष्म रूप धारण करने से अविज्ञेय भी हैं ‘सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयम्’ साथ ही काम, क्रोध,लोभ, मोह, मद, अहंकार, दम्भ आदि भयावह एवं विकराल दुर्गुणों से युक्त लंका को विशेष पराक्रम एवं विकट रूप से ही भस्मसात् किया जाना संभव था। अतः श्रीहनुमानजी ने दूसरी परिस्थिति में विराट् रूप धारण किया।

भावार्थ– आपने अत्यंत विशाल और भयानक रूप धारण करके राक्षसों का संहार किया और विविध प्रकार से भगवान् श्रीरामचन्द्र जी के कार्यों को पूरा किया।

व्याख्या– श्रीहनुमानजी परब्रह्म रामकी क्रियाशक्ति है। अतः उसी शक्ति के द्वारा उन्होंने भयंकर रूप धारण करके असुरोंका संहार किया। भगवान् श्रीरामके कार्य में लेशमात्र भी अपूर्णता श्रीहनुमानजी के लिये सहनीय नहीं थी तभी तो ‘राम काजी किन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम’ का भाव अपने हृदयमें सतत संजोये हुए वे प्रभु श्रीराम के कार्य संवारने में सदा क्रियाशील रहते थे।

भावार्थ– आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मणजी को जिलाया। इस कार्य से प्रसन्न होकर भगवान् श्रीराम ने आपको हृदय से लगा लिया।

व्याख्या– श्रीहनुमानजी को उनकी स्तुति में श्री लक्ष्मण-प्राणदाता भी कहा गया है। श्रीसुषेण वैद्यके परामर्श के अनुसार आप द्रोणाचल पर्वतपर गये, अनेक व्यवधानों एवं कष्टोंके बाद भी समयके भीतर ही संजीवनी बूटी लाकर श्रीलक्ष्मणजी के प्राणों की रक्षा की। विशेष स्नेह और प्रसन्नता के कारण ही किसी को हृदय से लगाया जाता है। अंशकी पूर्ण परिणति अंशीसे मिलनेपर ही होती है, जिसे श्रीहनुमन्तलालजीने चरितार्थ किया।

भावार्थ– भगवान् श्री राघवेन्द्रने आपकी बड़ी प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि तुम भाई भरतके समान ही मेरे प्रिय हो।

व्याख्या– श्रीरामचन्द्रजी ने हनुमानजी प्रति अपनी प्रियताकी तुलना भरतके प्रति अपनी प्रीतिसे करके हनुमानजीको विशेषरूपसे महिमामण्डित किया है। भरतके समान रामका प्रिय कोई नहीं है; क्योंकि समस्त जगत् द्वारा आराधित श्रीराम स्वयं भरतका जप करते हैं।

भावार्थ– हजार मुख वाले श्रीशेषजी सदा तुम्हारे यशका गान करते रहेंगे- ऐसा कहकर लक्ष्मीपति विष्णुस्वरूप भगवान् श्रीराम ने आपको अपने ह्रदय से लगा लिया।

व्याख्या-श्रीहनुमानजी की चतुर्दिक् प्रशंसा हजारों मुखोंसे होती रहे-ऐसा कहते हुए भगवान् श्रीराम जीने श्री हनुमानजीको कण्ठसे लगा लिया।

भावार्थ– श्रीसनक, सनातन, सनन्दन,सनत्कुमार आदि मुनिगण, ब्रह्मा आदि देवगण,नारद, सरस्वती, शेषनाग,यमराज, कुबेर तथा समस्त दिक्पाल भी जब आपका यश कहने में असमर्थ हैं तो फिर (सांसारिक) विद्वान् तथा कवि उसे कैसे कह सकते हैं? अर्थात आपका यश अवर्णनीय है।

व्याख्या– उपमाके द्वारा किसी वस्तु का आंशिक ज्ञान हो सकता है, पूर्ण ज्ञान नहीं। कवि कोविद उपमाका ही आश्रय लिया करते हैं।

श्री हनुमानजी की महिमा अनिर्वचनीय है। अतः वाणीके द्वारा उसका वर्णन करना सम्भव नहीं।

भावार्थ– आपने वानरराज सुग्रीवका महान् उपकार किया तथा उन्हें भगवान् श्रीरामसे मिलाकर (बालिवधके उपरान्त) राजपद प्राप्त करा दिया।

व्याख्या– राजपदपर सुकण्ठकी ही स्थिति है और उसका ही कण्ठ सुकण्ठ है जिसके कण्ठपर सदैव श्रीरामनामका वास हो। यह कार्य श्रीहनुमानजी की कृपासे ही सम्भव है।

सुग्रीव बालिके भयसे व्याकुल रहता था और उसका सर्वस्व हरण कर लिया गया था। भगवान् श्रीराम ने उसका गया हुआ राज्य वापस दिलवा दिया तथा उसे भयरहित कर दिया। श्रीहनुमानजी ने ही सुग्रीवकी मित्रता भगवान् रामसे करायी।

भावार्थ– आपके परम मन्त्र (परामर्श) को विभीषण ने ग्रहण किया। इसके कारण वे लंका के राजा बन गये। इस बातको सारा संसार जानता है।

व्याख्या-श्रीहनुमानजी महाराजने श्रीविभीषणजीको शरणागत होने का मन्त्र दिया था, जिसके फलस्वरूप वे लंका के राजा हो गये।

भावार्थ– हे हनुमानजी (जन्मके समय ही) आपने दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को (कोई) मीठा फल समझकर निगल लिया था।

व्याख्या– श्री हनुमानजी को जन्म से ही आठों सिद्धियां प्राप्त थी। वे जितना और ऊंचा चाहें उड़ सकते थे, जितना छोटा या बड़ा शरीर बनाना चाहें बना सकते थे तथा मनुष्यरूप अथवा वानर रूप धारण करने की उनमें क्षमता थी।

भावार्थ-आप अपने स्वामी श्रीरामचन्द्र जी की मुद्रिका (अंगूठी) को मुख में रखकर (सौ योजन विस्तृत) महासमुद्रको लांघ गये थे। (आपकी अपार महिमा को देखते हुए) इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है।

व्याख्या– श्री हनुमानजी महाराज को समस्त सिद्धियां प्राप्त हैं तथा उनके हृदय में प्रभु विराजमान हैं, इसलिये समस्त शक्तियां भी आपके साथ रहेगी ही। इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है।

भावार्थ– हे महाप्रभु हनुमानजी! संसारके जितने भी कठिन कार्य है वे सब आपकी कृपामात्रसे सरल हो जाते हैं।

व्याख्या– संसार में रहकर मोक्ष (जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्ति) प्राप्त करना ही दुर्गम कार्य है, जो आपकी कृपा से सुलभ है।

आपका अनुग्रह न होनेपर सुगम कार्य भी दुर्गम प्रतीत होता है, परंतु सरल साधनसे जीव पर श्री हनुमानजी की कृपा शीघ्र हो जाती है।

भावार्थ– भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके द्वारके रखवाले (द्वारपाल) आप ही हैं। आपकी आज्ञा के बिना उनके दरबार में किसी का प्रवेश नहीं हो सकता (अर्थात भगवान् रामकी कृपा और भक्ति प्राप्त करने के लिये आपकी कृपा बहुत आवश्यक है)।

व्याख्या-संसार में मनुष्य के लिये चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष। भगवान् के दरबार में बड़ी भीड़ न हो इसके लिये भक्तों के तीन पुरूषार्थ को हनुमानजी द्वारपर ही पूरा कर देते हैं। अन्तिम पुरुषार्थ मोक्षकी प्राप्ति के अधिकारी श्रीहनुमन्तलालजीकी अनुमति से भगवान् का सान्निध्य पाते हैं।

मुक्तिके चार प्रकार हैं – सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य एवं सायुज्य। यहां प्रायः सालोक्यमक्ति से अभिप्राय है।

भावार्थ-आपकी शरण में आये हुए भक्तों सभी सुख प्राप्त हो जाते हैं। आप जिसके रक्षक है उसे किसी भी व्यक्ति या वस्तु का भय नहीं रहता है।

व्याख्या– श्री हनुमानजी महाराज की शरण लेने पर सभी प्रकार के दैहिक,दैविक, भौतिक भय समाप्त हो जाते हैं तथा तीनों प्रकार के-आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक सुख सुलभ हो जाते हैं।

आप सुखनिधान हैं तथा सभी सुख आपकी कृपा से सुलभ हैं। यहां सभी सुखका तात्पर्य आत्यन्तिक सुख तथा परम सुख से है। परमात्मप्रभुकी शरण में जाने पर सदैव के लिये दुःखों से छुटकारा मिल जाता हैं तथा शाश्वत शान्ति प्राप्त होती है।

भावार्थ– अपने तेज (शक्ति, पराक्रम, प्रभाव, पौरूष और बल) – के वेगको स्वयं आप ही संभाल सकते हैं। आपके एक हुंकारमात्रसे तीनों लोक कांप उठते हैं।

व्याख्या– देवता, दानव और मनुष्य-तीनों ही आपके तेजको सहन करने में असमर्थ हैं। आपकी भंयकर गर्जनासे तीनों लोक कांपने लगते हैं।

भावार्थ– भूत पिशाच आदि आपका ‘महावीर’ नाम सुनते ही (नामोच्चारण करने वाले के) समीप नहीं आते हैं।

व्याख्या– श्री हनुमानजी का नाम लेने मात्र से भूत-पिशाच भाग जाते हैं तथा भूत-प्रेत आदिकी बाधा मनुष्य के पास भी नहीं आ सकती । श्रीहनुमानजी का नाम लेते ही सारे भय दूर हो जाते हैं।

भावार्थ-वीर हनुमानजी का जप करने से वे रोगों का नाश करते हैं तथा सभी पीड़ाओं हरण करते हैं।

व्याख्या– रोगके नाशके लिये बहुत से साधन एवं औषधियां हैं। यहां रोगका मुख्य तात्पर्य भवरोगसे तथा पीड़ा का तीनों तापों (दैहिक,दैविक, भौतिक) से है जिसका शमन श्रीहनुमानजी के स्मरण मात्र से होता है। श्री हनुमानजी के स्मरण से निरोगता तथा निर्द्वन्द्वता प्राप्त होती है।

भावार्थ– हे हनुमानजी! यदि कोई मन, कर्म और वाणी द्वारा आपका (सच्चे हृदय से) ध्यान करें तो निश्चय ही आप उसे सारे संकटोंसे छुटकारा दिला देते हैं।

व्याख्या-जो मन से सोचते हैं वहीं वाणी से बोलते हैं तथा वहीं कर्म करते हैं ऐसे महात्मागणको हनुमानजी संकट से छुड़ाते हैं। जो मन में कुछ सोचते हैं, वाणी से कुछ दूसरी बात बोलते हैं तथा कर्म कुछ और करते है, वे दुरात्मा हैं। वे संकटसे नहीं छूटते।

भावार्थ-तपस्वी राम सारे संसार के राजा हैं। (ऐसे सर्वसमर्थ) प्रभुके समस्त कार्यों को आपने ही पूरा किया।

व्याख्या– ‘पितां दीन्ह मोहि कानन राजू’ के अनुसार श्रीरामचन्द्रजी वन के राजा हैं और मुनिवेशमें हैं। वनमें श्रीहनुमानजी ही रामके निकटतम अनुचर हैं। इस कारण समस्त कार्यों को सुन्दर ढंग से सम्पादन करने का श्रेय उन्हीं को है।

भावार्थ– हे हनुमानजी! आपके पास कोई किसी प्रकार का भी मनोरथ (धन,पुत्र,यश आदिकी कामना) लेकर आता है, (उसकी) वह कामना पूरी होती है। इसके साथ ही ‘अमित जीवन फल’ अर्थात भक्ति भी उसे प्राप्त होती है।

व्याख्या-गोस्वामी श्री तुलसीदासजी की ‘कवितावली’में ‘अमित जीवन फल’ का वर्णन इस प्रकार हैं-

श्रीसीताराम जी के चरणों में प्रीति और भक्ति प्राप्त हो जाय यही जीवन फल है। यह प्रदान करने की क्षमता श्री हनुमानजी में ही हैं।

भावार्थ– हे हनुमानजी! चारों युगों (सत्ययुग, त्रेता, द्वापर,कलियुग) – में आपका प्रताप जगतको सदैव प्रकाशित करता चला आया हैं- ऐसा लोक में प्रसिद्ध है।

व्याख्या-मनुष्य के जीवन में प्रतिदिन-रात्रि में चारों युग आते जाते रहते हैं। इसकी अनुभूति श्री हनुमानजी के द्वारा ही होती है। अथवा जागृति,स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय-चारों अवस्थाओं में भी आप ही द्रस्टारूपसे सदैव उपस्थित रहते हैं।

भावार्थ– आप साधु-संतकी रक्षा करने वाले हैं, राक्षसों का संहार करने वाले हैं और श्री रामजी के अति प्रिय है।

व्याख्या– श्रीहनुमानजी महाराज रामके दुलारे हैं। तात्पर्य यह है कि कोई बात प्रभु से मनवानी हो तो श्री हनुमानजी की आराधना करें।

भावार्थ– माता जानकी ने आपको वरदान दिया हैं कि आप आठों प्रकार की सिद्धियां (अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व) और नवों प्रकार की निधियां (पद्म,महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील,खर्व) प्रदान करने में समर्थ होंगे।

व्याख्या-रूद्रावतार होने के कारण समस्त प्रकार की सिद्धियां एवं निधियां श्रीहनुमानजी को जन्म से प्राप्त थीं। उन सिद्धियों एवं निधियों को दूसरों को प्रदान करने की शक्ति मां जानकी के आशीर्वाद से प्राप्त हुई।

भावार्थ– अनन्त काल से आप भगवान् श्री रामके दास हैं। अतः रामनाम रूपी रसायन (भवरोगकी अमोघ औषधि) सदा आपके पास रहती है।

व्याख्या– कोई औषधि सिद्ध करनेके बाद ही रसायन बन पाती है। उसके सिद्धि की पुनः आवश्यकता नहीं पड़ती, तत्काल उपयोग में लायी जा सकती हैं और फलदायक सिद्ध हो सकती है। अतः रामनाम रसायन हो चुका है, इसकी सिद्धिकी कोई आवश्यकता नहीं है। सेवन करने से सद्य: फल प्राप्त होगा।

भावार्थ- आपके भजन से लोग श्रीरामको प्राप्त कर लेते हैं और अपने जन्म-जन्मान्तर के दुःखों को भूल जाते हैं अर्थात उन दुःखों से उन्हें मुक्ति मिल जाती है।

व्याख्या- भजनका मुख्य तात्पर्य यहां सेवा से है। सेवा दो प्रकार की होती है – पहली सकाम, दूसरी निष्काम। प्रभु को प्राप्त करने के लिये निष्काम और नि: स्वार्थ सेवाकी आवश्यकता है जैसा कि श्री हनुमानजी करते चले आ रहे हैं। अतः श्रीराम की हनुमानजी -जैसी सेवा से यहां संकेत है।

भावार्थ-अन्त समय में मृत्यु होने पर वह भक्त प्रभु के परमधाम (साकेत-धाम) जायगा और यदि उसे जन्म लेना पड़ा तो उसकी प्रसिद्ध हरि-भक्त के रूप में हो जायगी।

व्याख्या-भजन अथवा सेवाका परम फल है हरिभक्ति की प्राप्ति। यदि भक्त को पुनः जन्म लेना पड़ा तो अवध आदि तीर्थों में जन्म लेकर प्रभु का परम भक्त बन जाता है।

भावार्थ– आपकी इस महिमा को जान लेने के बाद कोई भी प्राणी किसी अन्य देवताको हृदय में धारण न करते हुए भी आपकी सेवा से है जीवनका सभी सुख प्राप्त कर लेता है।

व्याख्या-श्री हनुमानजी से अष्टसिद्धि और नवनिधिके अतिरिक्त मोक्ष या भक्ति भी प्राप्त की जा सकती हैं। इस कारण इस मानव-जीवन की अल्पायु में बहुत जगह न भटकने की बात कही गयी है। ऐसा दिशा-निर्देश किया गया है जहां से चारों पुरूषार्थ (धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष) प्राप्त किये जा सकते हैं।

यहां सर्वसुखका तात्पर्य आत्यन्तिक सुखसे हैं जो श्रीमारूतनन्दनके द्वारा ही मिल सकता है।

भावार्थ– जो प्राणी वीर श्रेष्ठ श्री हनुमानजी का हृदयसे स्मरण करता है, उसके सभी संकट दूर हो जाते हैं और सभी प्रकार की पीड़ाएं समाप्त हो जाती है।

व्याख्या-जन्म-मरण यातना का अन्त अर्थात भवबन्धनसे छुटकारा परमात्म-प्रभु ही करा सकते हैं। भगवान् श्री हनुमानजी के वंश में है। अतः श्री हनुमानजी सम्पूर्ण संकट और पीड़ाओं को दूर करते हुए जन्म मरण के बन्धन से मुक्त कराने में पूर्ण समर्थ है।

भावार्थ– हे हनुमान् स्वामिन्! आपकी जय हो! जय हो!! जय हो!!! आप श्रीगुरूदेव की भांति मेरे ऊपर कृपा कीजिये।

व्याख्या-गुरूदेव जैसे शिष्यकी धृष्टता आदिका ध्यान नहीं रखते और उसके कल्याण में ही लगे रहते हैं (जैसे काकभुशुण्डिके गुरु), उसी प्रकार आप भी मेरे ऊपर गुरुदेवकी ही भांति कृपा करें- ‘ प्रभु मेरे अवगुन चित न धरो’।

भावार्थ– जो इस (हनुमानचालीसा) का सौ बार पाठ करता है, वह सारे बन्धनों और कष्टोंसे छुटकारा पा जाता है और उसे महान् सुख (परमपद-लाभ) की प्राप्ति होती है।

व्याख्या-श्री हनुमानचालीसा के पाठकी फल श्रुति इस तथा अगली चौपाई में बतलायी गयी है। संसार में किसी प्रकार के बन्धन से मुक्त होने के लिये प्रतिदिन सौ पाठ तथा दशांशरूपमें ग्यारह पाठ, इस प्रकार एक सौ ग्यारह पाठ करना चाहिए। इससे व्यक्ति राघवेन्द्र प्रभु के सामीप्य का लाभ उठाकर अनन्त सुख प्राप्त करता है।

भावार्थ-जो व्यक्ति इस हनुमानचालीसा का पाठ करेगा उसे निश्चित रूप से सिद्धियों (लौकिक एवं पारलौकिक) की प्राप्ति होगी, भगवान् शंकर इसके स्वयं साक्षी है।

व्याख्या– श्री शंकरजी के साक्षी होने का तात्पर्य यह है कि भगवान् श्री सदाशिवकी प्रेरणा से श्री तुलसीदासजी ने श्री हनुमानचालीसा की रचना की। अतः इसे भगवान् शंकर का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त है। इसलिये यह श्री हनुमानजी की सिद्ध स्तुति है।

भावार्थ-हे नाथ श्री हनुमानजी! तुलसीदास सदा-सर्वदाके लिये श्री हरि (भगवान् श्री राम) का सेवक हैं। ऐसा समझकर आप उसके हृदय-भवन में निवास कीजिये।

व्याख्या-श्री हनुमानचालीसा में श्री हनुमानजी की स्तुति करने के बाद इस चौपाई में श्री तुलसीदासजी ने उनसे अन्तिम वरदान मांग लिया है कि हे हनुमानजी! आप मेरे हृदय में सदैव निवास करें।

दोहा

भावार्थ-हे पवनसुत श्रीहनुमानजी! आप सारे संकटों को दूर करने वाले हैं तथा साक्षात् कल्याणकी मूर्ति है। आप भगवान् श्री रामचन्द्र जी, लक्ष्मण जी और माता सीता जी के साथ मेरे हृदय में निवास कीजिये।

व्याख्या-भक्त के हृदय में भगवान् रहते ही हैं। इसलिये भक्त को हृदय में विराजमान करने पर प्रभु स्वत: विराजमान हो जाते हैं। श्री हनुमानजी भगवान् रामके परम भक्त हैं। उनसे अन्त में यह प्रार्थना की गयी है कि प्रभु के साथ मेरे हृदय में आप विराजमान हो।

बिना श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता जी के श्रीहनुमानजी का स्थायी निवास सम्भव भी नहीं है। इन चारों को हृदय में बैठा ने का तात्पर्य चारों पदार्थों को एक साथ प्राप्त करने का है। चारों पदार्थों से तात्पर्य ज्ञान (राम), विवेक (लक्ष्मण), शान्ति (सीताजी) एवं सत्संग (हनुमान जी) से है।

सत्संग के द्वारा ही ज्ञान, विवेक एवं शान्ति की प्राप्ति होती है। यहां श्री हनुमानजी सत्संग के प्रतीक हैं। अतः श्री हनुमानजी की आराधना से सब कुछ प्राप्त हो सकता है।